,सोने की पिजंरा
चुँ चुँ करती
पिञ्जरा मे थि वो
कल तक मुझे खुब सताती
मेरी निन्दँ उड़ाती
सब कुछ गिराती
निन्दँ से मुझे जगाती..
मेरी निन्दँ उड़ी तो ठान लिया
आज जरूर पिञ्जरे मे
तुझे डाल सोउंगी मै....
पर आज तो और मेरी
आँखे खुली की खली
हि रह गई..चुं चुं तो करती वो
दुनियाँ भर की याद दिलाती
कल ही अपहरण हुई
अवला की भातीं
उसकी तड़प..कैसी क्रन्दन,
चाय की पत्तियो की खुशबु
एक तर्फ और टाटा की चाय...
वाह ताजकी...पर वह पिञ्जरा में
बन्द भुख...प्यास..और मौत
तड़प और अपनी भुमि मे
खुद की ललाट की रेखा
अपने ही गला का फन्दा
सोने के पौदो मे रशायन की
मिलाप....क्या ये फसीँ प्राण
कि तड़प मेरी निन्दँ हि नही उड़ाती
आप भी सोचोँ होस उड़ने वाली है..
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