कसमकस
कसमकस
5*2*17
सफेद फूलों से सजी थी
यह महेफिल!
ना शायरी थी ना गजल
थी तो बस खामोशि!
मेरी आमना- सामना हुई उनसे
ना मै कुछ बोल सकी ना वे!
पर एहशास था गले मे अटकी
उन की विछड़ने की गम!
मैं कुछ बोलती तो
जरूर आँखों से टपकती मोती
एका एक मेरे आँखों के सामने
इंन्द्र धनूष जीवन डोल्ने लगा
कभी सजी होगि लाल रगं पे
कभी सजी होगि शरशों की तरह
फूलें फलें बाघ बघीचें
अगल -बगल लेहेरा रहे थे
उन की भी आखें नम जरूर थी
पर सहन शक्ती की भी सिमा अलग
कोने में बैठी मेरी सखी
मुझे देख मुस्करारही थी
उनकी मुस्कान के पिछे
भी थी गम की लहेरें
मैं एका एक रूहबरू हुई
उन खांमोश गजल और शायरीयों से
फिर दरवाजे पे पँहुची तो
लड़खड़ाया मेरी भी आवाज
शुन्य था वातावरण सफेद रंग पे
रजनिगंन्धा की खुशबु मे लिप्टी
उनकी आहट पर सुना मैने
टुटे पत्तो की खामोशी में
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